Tuesday, April 21, 2020

The Beautiful Spiritual Story

राजपूत राजा के वैराग्य की कथा


               प्राचीन काल से ही भारत राजा-महाराजा एवं ऋषि-मुनियों का देश रहा है। इसकी अद्भुत संस्कृति एवं सभ्यताओं के कारण ही इसे विश्वगुरु या जगतगुरु भारत कहा जाता रहा है। यह कथा भी हमारे देश के एक महान राजा की है, जिन्होंने एक सच्चा गुरु बनाकर पूर्ण परमात्मा की भक्ति किया।  

               यह कथा राजस्थान के गीगनौर(वर्तमान नाम नागौर) नामक शहर की है। जहाँ राजपूत राजा पीपा ठाकुर राज्य करता था। उसकी तीन रानियाँ थी। पटरानी (मुख्य पत्नी) का नाम सीता था। 

              उसी काल में काशी नगर (उत्तर प्रदेश) में आचार्य रामानंद जी रहते थे। वह तत्काल समय के सुप्रसिद्ध संत थे। वह कबीर परमेश्वर जी की लीला तथा यथार्थ ज्ञान जानकर उनसे प्राप्त ज्ञान का प्रचार किया करते थे। वे मण्डली बनाकर चलते थे। एक बार स्वामी रामानंद जी परमात्मा का ज्ञान प्रचार करते करते गीगनौर शहर में चले गए। राजा को पता चला कि स्वामी रामानंद आचार्य जी आए हैं। राजा पीपा जी देवी दुर्गा के परम भक्त थे। माता को ही सर्वोच्च शक्ति मानते थे। राज्य में सुख माता जी के आशीर्वाद से ही मानते थे। राजा को पता चला कि स्वामी रामानंद जी माता दुर्गा से ऊपर के पुर्ण परमात्मा के बारे में बताते हैं और कहते हैं कि माता दुर्गा की शक्ति से जन्म-मरण तथा चौरासी लाख प्राणियों के शरीरों में कष्ट उठाना समाप्त नहीं हो सकता। राजा को यह सुनकर अच्छा नहीं लगा।

               राजा पीपा जी ने स्वामी रामानंद जी को अपने महल में बुलावाया -

राजा पीपा जी - "आप कहते हो कि दुर्गा देवी जी से ऊपर अन्य परम प्रभु है। माता की पूजा से जन्म-मरण, चौरासी लाख प्रकार के प्राणियों में भ्रमण सदा बना रहेगा। जन्म-मरण तथा चौरासी लाख प्रकार की योनियों वाला कष्ट पूर्ण परमात्मा की भक्ति के बिना समाप्त नहीं हो सकता। राजा ने आगे बताया कि मैं प्रत्येक अमावस्या को माता का जागरण करवाता हूँ, भण्डारा करता हूँ। माता मुझे प्रत्यक्ष दर्शन देती है। मुझसे बातें करती है।"

स्वामी रामानंद जी - "आप माता से ही स्पष्ट कर लेना। हम छः महीने के पश्चात् फिर इस ओर आऐंगे, तब आप से भी मिलेंगे।"

इतना कह कर स्वामी जी चले गए।

                अमावस्या आ गई। हमेशा की तरह इस बार भी राजा ने जागरण कराया। माता ने दर्शन दिए। तब  राजा ने माता प्रश्न किया - 

राजा पीपा जी - "हे माता! आप मेरा जन्म-मरण तथा चौरासी लाख प्राणियों के शरीरों में कष्ट उठाना समाप्त कर दें।"

 श्री देवी दुर्गा जी - "राजन! बेटा तू तेरे राज्य में सुख माँग ले। राज्य विस्तार माँग ले। वह सब कर दूँगी, परंतु जन्म-मरण तथा चौरासी लाख वाला कष्ट समाप्त करना मेरे बस से बाहर है।"

इतना कह कर माता अंतर्ध्यान हो गई। 

               कहते हैं ना कि "यदि किसी को प्यास लगी हो, तो वह जल स्त्रोत(कुँआ, नदी, झरना इत्यादि) के खोज में लग ही जाता है।" इसी प्रकार पीपा ठाकुर बेचैन हो गया कि, "यदि जन्म-मरण समाप्त नहीं हुआ तो भक्ति का क्या लाभ? स्वामी जी कब आऐंगे? छः महीने तो बहुत लंबा समय है।"

यह समय राजा का व्यतीत नहीं हो रहा था। अन्ततः राजा पीपा से रहा नहीं गया और वह स्वयं हाथी पर सवार होकर स्वामी रामानन्द जी से मिलने के लिए काशी उनके आश्रम में चला गया। 

राजा ने द्वार पर खड़े द्वारपाल से कहा कि, "जाओ स्वामी जी से कहो कि पीपा राजा मिलने आया है।"

द्वारपाल ने ऐसा ही किया और अन्दर जाकर स्वामी जी से पूरा वृत्तान्त बताया।

स्वामी जी ने कहा कि, "मैं राजाओं से नहीं मिलता, भक्त-दासों से मिलता हूँ।

द्वारपाल ने आकर राजा को स्वामी जी का उत्तर राजा को बता दिया।

               कहते हैं ना "समझदार को इशारा काफी होता है।" राजा को जैसे ही स्वामी जी का उत्तर मिला तो उसी समय राजा अपना सब कुछ(हाथी, सोने का मुकुट आदि) दान करके आश्रम आया और कहा कि, "एक पापी
दास गीगनौर से स्वामी जी से मिलने आया है।" स्वामी जी बहुत प्रसन्न हुए। 

पीपा ने कहा - "मैं अब आपके पास ही जीवन बिताऊँगा।"

स्वामी जी ने कहा - "आप अपने घर जाओ, मैं शीघ्र आऊँगा। घर से आपको ठीक से वैरागी बनाकर लाऊँगा।"

               स्वामी जी को पता था कि अगर राजा यहाँ रुके तो कुछ दिन बाद रानी आएगी और यहाँ पर हाहाकार मचाएगी। इसलिए उनके सामने ही सन्यास देना उचित समझा। स्वामी रामानंद जी एक महीने के पश्चात् ही राजा के पास पहुँच गए। राजा पीपा ने स्वामी जी को गुरू धारण किया। राज्य त्यागकर उनके साथ काशी चलने का आग्रह किया। राजा के साथ तीनों रानियों ने भी घर त्यागकर सन्यास लेने को कहा। राजा को चिंता
हुई। 

राजा ने यह बात गुरू जी को बताया कि, "ये अब तो उमंग में भरी हैं, परंतु रूखा-सूखा खाना, धरती पर
सोना, अन्य समस्याओ को झेल न सकेंगी। मेरी भक्ति में भी बाधा करेंगी।

स्वामी रामानंद ने कहा कि, "मैं इस समस्या का समाधान करता हूँ।

स्वामी जी राजा के सम्मुख रानियों से कहा कि, "तीनों रानी अपने-अपने गहने त्याग कर चलें।

इतना सुनते ही सीता ने तो अपने आभूषण त्याग दिये। दो ने कहा कि हम आभूषण नहीं त्याग सकती। 

राजा ने पुनः कहा कि, "सीता भी तो बाधा बनेगी।"

स्वामी जी ने कहा कि, "सीता! आपको निर्वस्त्र होकर हमारे साथ रहना होगा।"

सीता ने कहा, "स्वामी जी! अभी वस्त्रा उतार देती हूँ।" यह कहकर कपड़ों के बटन खोलने लगी। 

स्वामी रामानंद जी ने कहा कि, "बेटी! बस कर। ये तेरी परीक्षा थी, तू सफल हुई।"

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए स्वामी जी ने कहा कि, "पीपा जी! आप सीता को साथ ले लो। यह आपकी साधना में कोई बाधा नहीं करेगी।"

               उपरोक्त विधि से स्वामी जी पीपा जी तथा सीता जी को साथ लेकर आए। दोनों ने काशी में रहकर भक्ति की। जैसा मिला, वैसा खाया। जैसा वस्त्रा मिला, वैसा पहना और श्रद्धा से भक्ति करने लगे।


⇒   पीपा-सीता सात दिन दरिया में रहे और फिर बाहर आए -

               भक्त पीपा और सीता सत्संग में सुना करते कि, "भगवान श्री कृष्ण जी की द्वारिका
नगरी समन्दर में समा गई थी। सब महल भी समुद्र में आज भी विद्यमान हैं। बड़ी सुंदर
नगरी थी। भगवान श्री कृष्ण जी के स्वर्ग जाने के कुछ समय उपरांत समुद्र ने उस पवित्रा
नगरी को अपने अंदर समा लिया था।"

               एक दिन पीपा तथा सीता जी गंगा दरिया के किनारे काशी से लगभग चार-पाँच किमी. दूर चले गए। वहाँ एक द्वारिका नाम का आश्रम था। आश्रम से कुछ दूर एक वृक्ष के नीचे एक पाली बैठा था। उसके पास उसी वृक्ष के नीचे बैठकर दोनों चर्चा करने लगे कि भगवान कृष्ण जी की द्वारिका जल में है। पानी के अंदर
है। पता नहीं कहाँ पर है? कोई सही स्थान बता दे तो हम भगवान के दर्शन कर लें। 

पाली ने सब बातें सुनी और बोला कि, "कौन-सी नगरी की बातें कर रहे हो?

पीपा-सीता कहा कि, "द्वारिका की।

पाली ने कहा, "वह सामने द्वारिका आश्रम है।"

पीपा-सीता ने कहा, "यह नहीं, जिसमें भगवान कृष्ण जी तथा उनकी पत्नी व ग्वाल-गोपियाँ रहती थी।

पाली ने कहा, "अरे! वह नगरी तो इसी दरिया के जल में है। यहाँ से 100 फुट आगे जाओ। वहाँ नीचे जल में द्वारिका नगरी है।"

               संत भोले तथा विश्वासी होते हैं। स्वामी रामानंद जी प्रचार के लिए 15 दिन के लिए आश्रम से बाहर गए थे। दोनों पीपा तथा सीता ने विचार किया कि जब तक गुरू जी प्रचार से लौटेंगे, तब तक हम भगवान की द्वारिका देख आते हैं। दोनों की एक राय बन गई। उठकर उस स्थान पर जाकर दरिया में छलाँग लगा दी। आसपास खेतों में किसान काम कर रहे थे। उन्होंने देखा कि एक स्त्री तथा एक पुरुष दरिया में कूद गए हैं। और आत्महत्या कर ली है। सब दौड़कर दरिया के किनारे आए। 

 किसानों ने पाली से पूछा कि, "क्या कारण हुआ? ये दोनों मर गए, आत्महत्या क्यों कर ली?"

पाली ने सब बात बताई और कहा कि, "मैंने तो मजाक किया था कि दरिया के अंदर भगवान की द्वारिका नगरी है। इन्होंने दरिया में द्वारिका देखने के लिए प्रवेश ही कर दिया। छलांग लगा दी।

बड़ी आयु के किसानों ने कहा कि, "आपने गलत किया, आपको पाप लगेगा। भक्त तो बहुत सीधे-साधे होते हैं।"

               पुनः सभी अपने-अपने काम में लग गए। यह बात आसपास गाँव तथा काशी में आग की तरह फैल गई। काशी के व्यक्ति जानते थे कि, "वे राजा-रानी थे, मर गए।"

               परमात्मा ने भक्तों का शुद्ध हृदय देखकर उस दरिया में द्वारिका की रचना कर दी। श्री कृष्ण तथा रूकमणि आदि-आदि सब रानियाँ, ग्वाल, बाल, गोपियाँ सब उपस्थित थे। भगवान श्री कृष्ण रूप में विद्यमान थे। सात दिन तक दोनों द्वारिका में रहे। चलते समय श्री कृष्ण रूप में विराजमान परमात्मा ने अपनी ऊँगली से
अपनी अंगूठी (छाप) निकालकर भक्त पीपा जी की ऊँगली में डाल दी जिस पर कृष्ण लिखा था। सातवें दिन उसी समय दिन के लगभग 11 बजे दरिया से उसी स्थान से निकले। कपड़े सूखे थे। दोनों दरिया किनारे खड़े होकर चर्चा करने लगे कि अब कई दिन यहाँ दिल नहीं लगेगा। 

               खेतों में कार्य कर रहे किसानों ने देखा कि ये तो वही भक्त-भक्तनी हैं जिन्होंने दरिया में छलाँग लगाई थी। आसपास के वे ही किसान फिर से उनके पास दौड़े-दौड़े आए और कहने लगे कि आप तो दरिया में डूब गए थे। जिन्दा कैसे बचे हो? सातवें दिन बाहर आए हो, कैसे जीवित रहे? 
पीपा-सीता ने बताया कि, "हम भगवान श्री कृष्ण जी के पास द्वारिका में रहे थे। उनके साथ खाना खाया। रूकमणि जी ने अपने हाथ से खाना बनाकर खिलाया। वे बहुत अच्छी हैं। भगवान श्री कृष्ण भी बहुत अच्छे हैं। देखो! भगवान ने छाप (अंगूठी) दी है। इस पर उनका नाम लिखा है।

               यह सब बातें सुनकर सब आश्चर्य कर रहे थे। यह बात भी आसपास के क्षेत्रा तथा काशी में फैल गई। सब उनको देखने तथा भगवान द्वारा दी गई छाप को देखने, उसको मस्तिक से लगाने आने लगे। स्वामी रामानन्द जी के आश्रम में मेला-सा लग गया। स्वामी जी भी उसी दिन प्रचार से लौटे थे। उन्होंने यह समाचार सुना तो हैरान थे। छाप देखकर तो सब कोई विश्वास करता था। वैसी छाप (अंगूठी) पृथ्वी पर नहीं थी। उस अंगूठी को एक पुराने श्री विष्णु के मंदिर में रखा गया। कुछ साधु कहते हैं कि, "वह अंगूठी वर्तमान में भी उस मंदिर में रखी है।"


संत गरीबदास जी ने पीपा-सीता जी के बारे में वर्णन करते हुए कहा है कि -


        पीपा को परचा हुआ, मिले भक्त-भगवान।                                               सीता सुधि साबुत रहीं, द्वारामति निधान॥


भावार्थ -      पीपा जी को परचा (परिचय अर्थात् चमत्कार) हुआ। भगवान तथा भक्त मिले, आपस में चर्चा हुई। सीता सुधि (सीता सहित) साबुत (सुरक्षित) रहे। द्वारामति (द्वारिका नगरी) निधान यानि वास्तव में अर्थात् यह बात सत्य है।


               ऐसे ही बहुत सी सत्य कथाएं हैं भारत में जो बहुतों ने कभी नहीं सुनी होंगी। ऐसे अद्भुत एवं अमर कथाएं सुनने के लिए अवश्य देखें व सुनें संत रामपाल जी महाराज जी के मंगल प्रवचन निम्नलिखित समयानुसार इन चैनलों पर...


  1. सुबह 06:00 बजे से नेपाल 1 टी.वी. चैनल पर
  2. दोपहर 02:00 बजे से श्रद्धा एम एच वन चैनल पर
  3. शाम 06:30 बजे से सारथी चैनल पर
  4. शाम 07:30 बजे से साधना चैनल पर
  5. रात 08:30 बजे से ईश्वर चैनल पर

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